19 March 2010

आधी अधूरी....

सब कुछ मुनासिब है,
सिवाए मुकदना मोहब्बत से/
मांगने से जब खुदा भी मिलता है थो,
तुम बिन तड़पने वाले को...तुम्हारा साथ क्यों नहीं?//



बद नसीबी की भी सीमा हद पार करगई,
न रही साथ अपनी...आप के साथ की ईद/
अब जो भी बचा-कूचा हैठो,
ग़म का मुहर्रम...और एक धूर की उम्मीद//



अब आपसे क्या छुपाना?
जब चित्त हो ही चुके है/
वाकेही सारे कुँबों के तीर लुटाके,
खाली थर्काश हाथ में लिए...हार मान ही छुके है//



मोवला मुझे मोव्थ बक्श दे,
गुट गुट के तन्हाई में तड़पने से वोही बाला/
बिन हमसफ़र के में,
जलते रेत में फटे कद्मोंको रक्थे...ग़म के रेगिस्थानमें भिकारोयो के माफिक चला//

No comments: